Wednesday, March 18, 2009

सरकारी बहानो में उलझी आदिवासी शिक्षा विकास योजनाये


जनजातिय मामलों के मंत्रालय ने सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण पर गठित स्थायी समिति की जनजातियों के लिए चलाई जा रही शैक्षिणिक उत्थान योजनाओं से संबंधित रिपोर्ट में राज्य सरकारों की दायित्वहीनता एवं केन्द्र सरकार निष्क्रियता साफ झलक रही है। समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा है कि जनजातियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए चलाई जा रही एकलव्य मॉडर्न रिहायशी स्कूलों की स्थापना की परियोजना के अंतर्गत मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों के लिए 100 स्कूल मंजूर किये थे, उनमे से केवल 79 स्कूल ही कार्यरत है । शेष 21 स्कूल शुरु ही नही हुए यहां तक कि उनमें से चार स्कूल जनजाति बहुल आसाम एवं मेद्यालय से दूसरे राज्यों मे स्थान्तरित कर दिये गये। कमेटी ने पाया की राज्य सरकारों की गैर जिम्मेदारी एवं उदासीनता के कारण यह स्कूल स्थापना का कार्य समय से नही हो सका और अब कहा है कि मंत्रालय अनिर्मित सभी स्कूलो को 2 वर्ष के भीतर शुरु करने के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश जारी करें। समिति ने कहा है कि 2004.05 से 2007.08 में मंत्रालय द्वारा उत्तर -मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए अरुणाचल प्रदेश, बिहार, दमन दीव के लिए जो वित्तीय मदद नही दी गई उसे तुरंत जारी किया जाये। कमिटी मंत्रालय के इस जवाब से असंतुष्ट थी कि संबंधित राज्य द्वारा वित्तीय मांगो के प्रस्ताव नही भेजे थे। कमेटी के सामने सरकार ने अपने जवाब में कहा था, मंत्रालय ने 2007-08 के दोहराने संबंधित राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को कई बार लिखित स्मृति पत्र भी भेज चुकि है लेकिन राज्य सरकारों ने आवश्यक कार्यवाही नही कि, इसे कमेटी ने खारिज कर दिया तथा कहा कि मंत्रालय को आदिवासी छात्रों के लिए राज्य सरकारों पर आवश्यक दवाब बनाये ताकि उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। एवं इन कारणों का भी पता लगाये जिनके कारण राज्य सरकारे समय-समय पर प्रतिवेदन क्यों नही दे पाती है। शत प्रतिशत केन्द्र सरकार द्वारा संचालित उत्तर मैट्रिक छात्रवृति योजना के ठीक क्रियान्वयन नही होने के पीछे सरकार का तर्क है की वित्तीय रुप से पिछड़े अनुश्चिित जनजाति के छात्र छात्रवृति के लिए आवेदन नही करते है इसे कमेटी ने सिरे से खारिज कर दिया तथ टालने के रवैये की कड़ी आलोचना की है। स्थयी समिति ने अपनी अगली सिफारिश के संदर्भ में मंत्रालय से आये जवाब मे कि असम, झारखंड, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड़ से इस छात्रवृति पर खर्च एवं उपयोग प्रमाण पत्र नही मिलने के कारण इनकी वित्त पूर्ति पर रोक लगा दी गई थी लेकिन कमेटी ने इससे नाराजगी जताते हुए कहा कि इसके खच्र का सुनिश्चित करते हुए यह ध्यान दिया जाये कि निर्धारित योजना का पैसा उसी योजना पर खर्च किया जाये किसी अन्य योजना मे यह डाइवर्ट नही किया जाएं। 2004-05, 2005-06 और 2006-07 में अप ग्रेजुएशन आफ मेरिट आफ एसटी स्टूडेंट स्कीम के अंतर्गत लाभार्थियों की संख्या कई राज्यों में नही के बराबर है एवं 2007-08 में उत्तर प्रदेश में तो इस योजना के अंतर्गत किसी को भी लाभ नही दिया गया यह दशा मंत्रालय की अनदेखी एवं राज्य सरकारों की जनजातियों के शैक्षणिक विकास के प्रति उदासीनता को उजागर करती है।
बेबसी बचपन की!

2 फरवरी दिल्ली, शिवराम मीना, केन्द्र सरकार के 14 साल से कम उम्र के बच्चों से सड़क के किनारे ढाबों होटलों चाय की दुकान व घरों में नौंकर के रुप में काम कराने पर प्रतिबंध लगा देने के बाद,यह सरकारी सपना देखा गया था, कि आने वाले दिनों में हमें अपनें घरों के आसपास छोटू ,रामू ,बबली बर्तन साफ करते झाडू देते दिखायी नही देंगे, वे स्कूल जायेंगे और हमारे घर न सॅवारकर अपना बचपन सॅवारते नजर आयेंगे, लेकिन नौकरशाही की नाकामी की नजीर बनें ये बच्चे,ं हमें दिल्ली के आलीशान बंगलांे से लेकर सड़क के ढाबों तक नजर आ जायगें। विशेष रुप से ये बच्चें देश के पूर्वी राज्यों से काम की तलाश में आते है। इन बच्चों की मजबूरी उनके घरों में पसरी गरीबी है, जिसके काऱण इन्हंे इसके मॉःबाप के द्वारा किसी रिस्तेदार के साथ या अन्य किसी जानकार के माध्यम से दिल्ली में काम करने के लिये भेज दिया जाता है। ये रिस्तेदार इन बच्चों को किसी अमीर से घर में घरेलू काम पर रखवा देते है, और अपनी जिम्मेदारी कम करने के लिये बच्चों को उन्ही घरों में काम करने के साथ-साथ रात में सोने तथा उनको मिलने वाली मजदूरी में से कुछ हिस्सा कम दिलवाने की ‘ार्त पर उसी घर में खाने की भी बात कर लेते है। उत्तरी दिल्ली के एक पॉस इलाके में स्थित एक घर में काम करने वाले बच्चे ने बताया कि वह झारखंड के एक गांव का रहने वाला है, और उम्र है 13 वर्ष, वह अपने चाचा के साथ आया था, जो कि पास में ही झुग्गीयों में रहते है, उन्हांेने मुझे इस घर में 1500 रुपये महिने की मजदूरी पर काम करने के लिये रखवाया है। मैं सुबह 6 बजे उठ़ता हूॅ और उठ़़कर रात के झूठे़ बर्तन साफ करता हूॅ। जो कि उस परिवार के हमउम्र बच्चो से लेकर बुजूर्गो तक के होते है। जब कभी रात को 11 बजे के बाद तक भी काम करने के कारण लेट हो जाता हूॅ और सुबह नींद नही खुलती तो घर की बुढिया मुझे सोफे से नीचे गिराकर बोलती है कि, तू हमारा मेहमान नही है। मुझे सुबह उठकर बरतनो की सफाई के बाद सभी को चाय बनाकर देनी होती है और फिर घर का झाडू-पोंछ़ा से लेकर कपडांे की सफाई का काम करना होता है। दोपहर का खाना बनाने के बाद तीन बजे से ‘ााम सात बजे तक उनकी पुस्तकांे की दुकान पर काम करना पडता है।यह कहानी कमोबेश हर बाल मजदूर की होती हैै। जो, ढ़ाबो, घरांे में ‘ाारिरिक हिंसा, मानसिक यंत्रणा एवं कभी-कभार यौन-‘ाोषण के भी शिकार होते है। दिल्ली विश्व विधालय के पास मजॅनू के टीला में एक रेस्टोरंेट में काम करने वाली लडकियॉ जिनकी उम्र 15 वर्ष के तकरीबन है उनके ‘ाोषण की कहानी हॉस्टलो में रहने वाले छात्रांे की जुबानी सुनी जा सकती है, जिसमंे मानसिक उत्पीडन से लेकर ‘ाारिरिक प्रताडना तक ‘ाामिल है। जो कि श्रम मंत्रालय के बाल श्रम ;निरोध एवं विनियमनद्ध अधिनियम 1986 के तहत् जारी किये गए आदेश का खुला उल्लंघन है, साथ ही और भी कई कानूनों की धज्जियां उड़ाता नजर आ रहा है।1997 में मानवाधिकार आयोग ने भारत सरकार से अनुशंसा की कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों को किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा काम पर नहीें लगाया जाना चाहिए। भारत सरकार ने 1999 में सेंटल सर्विसेस रूल्स 1964 में संसोधन करके आदेश जारी भी किया लेकिन आज इसका कितना पालन हो रहा है यह अनुमान हमारे पड़ौस में स्थित राष्ट़ीय स्वास्थ एवं परिवार कल्याण संस्थान के आवासीय परिसर में जेएनयू की झुग्गियों से काम करने जाते बच्चों को देखकर लगाया जा सकता है।दरअसल बाल मजदूरी खत्म करने व उनके पुर्नवास से जुड़ी राजनैतिक व सामाजिक प्रतिबद्धता का सवाल अहृम है। बच्चे वोट बैंक नहीं है, लिहाजा राजनेताओं के पास उनके लिए वक्त नहीं है। जहां तक समाज का सवाल है तो वह बहुत चालाक है। मध्यमवर्गीय, उच्चवर्गीय समाज गरीब बच्चों की कीमत पर अपने बच्चों को ऐश करवाता है। छोटे गरीब बच्चे बर्तन धोते हैं, सफाइ्र्र करते हैं, और उनके बच्चे कंप्यूटर पर गेम ख्ेालते हैं, इं्रटरनेट खंगालते हैं। मॉ-बाप बड़े गर्व से दूसरों को बताते हैं कि उनका छह-सात साल का बच्चा कंप्यूटर जानता है। उनके बच्चे भोजन करने के बाद कभी भोजन की मेज साफ नही करते अपना बिस्तर नही लगाते। उनका यह काम करने के लिए घर में बहुत ही सस्ती पगार पर छोटू , बबली तैनात हैं। उनकी तैनाती से हमारी सामाजिक हैसियत तय होती है। इसलिए जब तक हमारा तथाकथित सभ्यसमाज सामाजिक हैसियत के ऐसे नकली मापदंड से बाहर नहीं निकलेगा और अपने बच्चों में घरेलू काम करने की आदत विकसित नहीं करेगा तब तक कानून को ठें़गा दिखाकर इन मॉसूमों की पिछले दरबाजे से घरों में एंट्ी जारी रहेगी।
भारतीय दुधारु रेल ः मुस्कान के साथ !

मैंने जयपुर का रेल टिकट लिया और जब इसे अहमदाबाद तक बढ़वाना चाहा तो रेलवे ने इसका अतिरिक्त शुल्क वसूल किया। हालांकि इस काम को करने में रेल विभाग को कोई भी खर्च अलग से नहीं करना पड़ता है। पर “ग्राहकों की सेवा मुस्कान के साथ“ ! सूत्र वाक्य वाली लालू की दुधारू रेल आज यही मिजाज रखती है।ठीक इसी तरह जब कोई यात्री अपनी यात्रा शुरु करने के स्थान से ही वापसी का टिकट भी बुक करवाता है तो रेलवे यात्री से 20 रुपये अतिरिक्त शुल्क वसूल करता है। जैसे ़ ़ ़ किसी यात्री को दिल्ली से बनारस जाना है और बनारस से वापसी का टिकट वह दिल्ली से ही बुक करवाना चाहता है तो उसे 20 रुपये अतिरिक्त शुल्क देना होता है। कंप्यूटर के माध्यम से प्राप्त हुई ये सुविधाएं यात्री को आसानी से मिलनी चाहिए थी लेकिन इसकी कीमत उसे अपनी ही जेब से चुकानी पड़ती है। तो ऐसे में तकनीकी विकास का उस यात्री को क्या फायदा मिला जिसे सुविधाजनक यात्रा के सपने दिखाए जा रहे है ?पिछले चार सालों से लगातार लाभ की गाथा लिख रहे भारतीय रेल के कर्णधारों ने किस तरह आम आदमी की जेब में डाका डाला है, यह उसकी समझ से भी बाहर है। आधुनिकीकरण और तकनीकी विकास से हासिल हुई सुविधाओं की कीमत भी सामान्य यात्रियों कों चुकानी पड़ रही है। वहीं रेलवे हजारों करोड़ का मुनाफे कमाने वाली निजी कंपनियों का रिकार्ड भी तोड़ रही है। इस कमाई के पीछे रेल विभाग की कुशलता से ज्यादा उसका व्यवसायीकरण है। यात्रियों से टिकट वसूली में रेलवे ने आरक्षण के सामान्य कोटे को घटाकर तत्काल आरक्षण का कोटा बढ़ा दिया है। जिसमें सामान्य आरक्षण शुल्क से 30 फीसदी अधिक शुल्क देना होता है। यदि यात्री को सीट;कन्फर्मद्ध नहीं मिल पाती है तो टिकट के पैसे भी वापस नहीं मिलते हंै। अब मजबूरी में यात्री को तत्काल का टिकट लेना पड़ता है क्योंकि सामान्य आरक्षण का कोटा कम होने की वजह से पहले ही खत्म हो जाता है। इस तरह की चालाकी से रेल विभाग करोड़ों कमा रहा है।
डिब्बों में सामान्य यात्रियों की सीटों की जगह को छोटा किया गया है और नई सीटें बनाई गई है। इससे यात्रियों को सफर में दिक्कत तो होती ही है और उनकी सुरक्षा भी प्रभावित होती है। इस तरह रेल विभाग सामान्य यात्रियों की सीटों की जगह बेचकर ’मुनाफे का खेल’ खेल रहा है।
रेलवे ने जहां अपने स्टेशनों के पास की भूमि का व्यावसायिक उपयोग किया है वहीं स्टेशनों पर निजी सार्वजनिक भागीदारी के आधार पर निजी उद्योगपतियों को मालामाल भी किया है। अब तो स्टेशनों पर आधारभूत सुविधाओं का उपयोग करने के लिए भी यात्रियों को शुल्क देना पड़ता है। सार्वजनिक सेवा के नाम पर कार्य करने वाली रेल अब पीने के पानी से लेकर यात्रियों के रात में ठहरने की जगह तक का पैसा वसूल रही है। क्या यही है भारतीय रेल ग्राहकों की सेवा मुस्कान के साथ ?

Thursday, March 12, 2009

बेफिक्र भारत

दुनिया में आज जब सभी जगह आर्थिक मंदी को इतना जोर शोर से pracharit किया जा रहा है और भारत में इसे एक हौवा बनाने की कोशिश की जा रही है, तब भी आम आदमी इस मंदी से बेफिक्र नज़र आ रहा है! इस आर्थिक मंदी का मुख्य रूप से असर भारत में ये हुआ की जो आम आदमी कुछ नई चीज़ या कुछ नया सामान खरीदने वाला था , अब उसने अपनी खरीददारी को कुछ दिन के लिए रोक लिया है.....! ये बात नही की उसके पास पैसा नही है, उसके पास पैसा तो है पर उसने जब से इस "आर्थिक मंदी" के भूत का नाम सुना है तब से उसे कहीं खर्च करने के बजाय इकठा करने में ही समझदारी दिखाई दे रही है ! अब जब तक मीडिया इस आर्थिक मंदी का भूत आम आदमी के मन से नही निकालेगा तब तक खर्च करने से यूँ ही डरता रहेगा ! "जय हो"