Wednesday, March 18, 2009

बेबसी बचपन की!

2 फरवरी दिल्ली, शिवराम मीना, केन्द्र सरकार के 14 साल से कम उम्र के बच्चों से सड़क के किनारे ढाबों होटलों चाय की दुकान व घरों में नौंकर के रुप में काम कराने पर प्रतिबंध लगा देने के बाद,यह सरकारी सपना देखा गया था, कि आने वाले दिनों में हमें अपनें घरों के आसपास छोटू ,रामू ,बबली बर्तन साफ करते झाडू देते दिखायी नही देंगे, वे स्कूल जायेंगे और हमारे घर न सॅवारकर अपना बचपन सॅवारते नजर आयेंगे, लेकिन नौकरशाही की नाकामी की नजीर बनें ये बच्चे,ं हमें दिल्ली के आलीशान बंगलांे से लेकर सड़क के ढाबों तक नजर आ जायगें। विशेष रुप से ये बच्चें देश के पूर्वी राज्यों से काम की तलाश में आते है। इन बच्चों की मजबूरी उनके घरों में पसरी गरीबी है, जिसके काऱण इन्हंे इसके मॉःबाप के द्वारा किसी रिस्तेदार के साथ या अन्य किसी जानकार के माध्यम से दिल्ली में काम करने के लिये भेज दिया जाता है। ये रिस्तेदार इन बच्चों को किसी अमीर से घर में घरेलू काम पर रखवा देते है, और अपनी जिम्मेदारी कम करने के लिये बच्चों को उन्ही घरों में काम करने के साथ-साथ रात में सोने तथा उनको मिलने वाली मजदूरी में से कुछ हिस्सा कम दिलवाने की ‘ार्त पर उसी घर में खाने की भी बात कर लेते है। उत्तरी दिल्ली के एक पॉस इलाके में स्थित एक घर में काम करने वाले बच्चे ने बताया कि वह झारखंड के एक गांव का रहने वाला है, और उम्र है 13 वर्ष, वह अपने चाचा के साथ आया था, जो कि पास में ही झुग्गीयों में रहते है, उन्हांेने मुझे इस घर में 1500 रुपये महिने की मजदूरी पर काम करने के लिये रखवाया है। मैं सुबह 6 बजे उठ़ता हूॅ और उठ़़कर रात के झूठे़ बर्तन साफ करता हूॅ। जो कि उस परिवार के हमउम्र बच्चो से लेकर बुजूर्गो तक के होते है। जब कभी रात को 11 बजे के बाद तक भी काम करने के कारण लेट हो जाता हूॅ और सुबह नींद नही खुलती तो घर की बुढिया मुझे सोफे से नीचे गिराकर बोलती है कि, तू हमारा मेहमान नही है। मुझे सुबह उठकर बरतनो की सफाई के बाद सभी को चाय बनाकर देनी होती है और फिर घर का झाडू-पोंछ़ा से लेकर कपडांे की सफाई का काम करना होता है। दोपहर का खाना बनाने के बाद तीन बजे से ‘ााम सात बजे तक उनकी पुस्तकांे की दुकान पर काम करना पडता है।यह कहानी कमोबेश हर बाल मजदूर की होती हैै। जो, ढ़ाबो, घरांे में ‘ाारिरिक हिंसा, मानसिक यंत्रणा एवं कभी-कभार यौन-‘ाोषण के भी शिकार होते है। दिल्ली विश्व विधालय के पास मजॅनू के टीला में एक रेस्टोरंेट में काम करने वाली लडकियॉ जिनकी उम्र 15 वर्ष के तकरीबन है उनके ‘ाोषण की कहानी हॉस्टलो में रहने वाले छात्रांे की जुबानी सुनी जा सकती है, जिसमंे मानसिक उत्पीडन से लेकर ‘ाारिरिक प्रताडना तक ‘ाामिल है। जो कि श्रम मंत्रालय के बाल श्रम ;निरोध एवं विनियमनद्ध अधिनियम 1986 के तहत् जारी किये गए आदेश का खुला उल्लंघन है, साथ ही और भी कई कानूनों की धज्जियां उड़ाता नजर आ रहा है।1997 में मानवाधिकार आयोग ने भारत सरकार से अनुशंसा की कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों को किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा काम पर नहीें लगाया जाना चाहिए। भारत सरकार ने 1999 में सेंटल सर्विसेस रूल्स 1964 में संसोधन करके आदेश जारी भी किया लेकिन आज इसका कितना पालन हो रहा है यह अनुमान हमारे पड़ौस में स्थित राष्ट़ीय स्वास्थ एवं परिवार कल्याण संस्थान के आवासीय परिसर में जेएनयू की झुग्गियों से काम करने जाते बच्चों को देखकर लगाया जा सकता है।दरअसल बाल मजदूरी खत्म करने व उनके पुर्नवास से जुड़ी राजनैतिक व सामाजिक प्रतिबद्धता का सवाल अहृम है। बच्चे वोट बैंक नहीं है, लिहाजा राजनेताओं के पास उनके लिए वक्त नहीं है। जहां तक समाज का सवाल है तो वह बहुत चालाक है। मध्यमवर्गीय, उच्चवर्गीय समाज गरीब बच्चों की कीमत पर अपने बच्चों को ऐश करवाता है। छोटे गरीब बच्चे बर्तन धोते हैं, सफाइ्र्र करते हैं, और उनके बच्चे कंप्यूटर पर गेम ख्ेालते हैं, इं्रटरनेट खंगालते हैं। मॉ-बाप बड़े गर्व से दूसरों को बताते हैं कि उनका छह-सात साल का बच्चा कंप्यूटर जानता है। उनके बच्चे भोजन करने के बाद कभी भोजन की मेज साफ नही करते अपना बिस्तर नही लगाते। उनका यह काम करने के लिए घर में बहुत ही सस्ती पगार पर छोटू , बबली तैनात हैं। उनकी तैनाती से हमारी सामाजिक हैसियत तय होती है। इसलिए जब तक हमारा तथाकथित सभ्यसमाज सामाजिक हैसियत के ऐसे नकली मापदंड से बाहर नहीं निकलेगा और अपने बच्चों में घरेलू काम करने की आदत विकसित नहीं करेगा तब तक कानून को ठें़गा दिखाकर इन मॉसूमों की पिछले दरबाजे से घरों में एंट्ी जारी रहेगी।

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